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गुजारा भत्ता के लिए जोड़े का शौहर बीवी के रूप में रहना पर्याप्त, शादी के सबूत जरूरी नहीं

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प्रयागराज, 30 जुलाई (Udaipur Kiran) । इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि गुजारा भत्ता देने के लिए शादी के सबूत बहुत सख्त नहीं होते हैं, खासकर यदि यह स्थापित हो जाए कि एक जोड़ा शौहर बीबी के रूप में एक साथ रह रहा है।

न्यायमूर्ति अनिल कुमार की पीठ ने 18 मार्च, 2025 के फैमिली कोर्ट, फतेहपुर के फैसले को बरकरार रखते हुए यह टिप्पणी की, जिसमें हरुन अहमद उर्फ बन्ने को अपनी कथित बीबी शबीना को मासिक गुजारा भत्ता देने का निर्देश दिया गया था।

फतेहपुर के हरुन अहमद ने आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर कर फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती दी थी। उन्होंने तर्क दिया कि उनकी शादी शबीना से कभी नहीं हुई थी और शबीना पहले से ही शादीशुदा महिला थीं, जिनके पूर्व शौहर से दो बेटियां थीं, और उन्होंने तलाक भी नहीं लिया था।

याची के वकील ने यह दलील कि शबीना ने शादी के अपने दावे को साबित करने के लिए एक जाली निकाहनामा पर भरोसा किया था। उन्होंने बताया कि निकाहनामा में निकाह की तारीख को बदला गया है । इसके अतिरिक्त, उन्होंने निकाहनामा में जाली हस्ताक्षर होने की दलील दी।

हालांकि, शबीना के वकील ने इन दावों का खंडन किया। तर्क दिया कि फैमिली कोर्ट ने सभी सबूतों की बारीकी से जांच की थी और पाया था कि निकाहनामा पर हरुन अहमद के हस्ताक्षर, याचिका में दायर उनकी आपत्तियों पर उनके हस्ताक्षर से मेल खाते थे। उन्होंने जोर देकर कहा कि यदि याची ने अपने हस्ताक्षर को जाली होने का दावा किया होता, तो यह साबित करने का बोझ उन पर था कि वे हस्ताक्षर विशेषज्ञ द्वारा सत्यापित करवाएं, लेकिन उन्होंने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया।

न्यायालय ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनीं और फैमिली कोर्ट के निष्कर्षों का समर्थन किया। हस्ताक्षर के जाली होने के दावे के संबंध में, न्यायालय ने कहा कि फैमिली कोर्ट ने हरुन अहमद की आपत्तियों में और निकाहनामा पर उनके हस्ताक्षर की तुलना की थी और दोनों को बिल्कुल समान पाया था। न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि दस्तावेज़ की सत्यता को चुनौती देने का कर्तव्य याची पर था, और उन्हें हस्ताक्षर विशेषज्ञ द्वारा अपने हस्ताक्षर की जांच करानी चाहिए थी, लेकिन वह ऐसा करने में विफल रहे।

न्यायालय ने द्वारिका प्रसाद सतपथी बनाम विद्युत प्रभा दीक्षित और एक अन्य मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले का भी उल्लेख किया, जिसमें यह माना गया था कि धारा 125 सीआरपीसी की कार्यवाही में शादी का सबूत उतना सख्त नहीं होता जितना कि धारा 494 आईपीसी के तहत अपराध के लिए आवश्यक होता है। न्यायालय ने दोहराया कि जहां कुछ सबूत हैं जिनसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जोड़े पति और पत्नी के रूप में एक साथ रह रहे हैं, तो गुजारा भत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता है।

न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि रिकॉर्ड पर पर्याप्त प्रथम दृष्टया सबूत उपलब्ध थे जो शादी के तथ्य को साबित करते थे। तदनुसार, न्यायालय ने फैमिली कोर्ट के 18 मार्च, 2025 के आदेश में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। आपराधिक पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी गई।

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(Udaipur Kiran) / रामानंद पांडे

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