ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि के दिन वट सावित्री का व्रत किया जाता है। इस दिन महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती हैं। मान्यता है कि वट वृक्ष में त्रिदेव का वास है। साथ ही वट वृक्ष के नीचे ही यमराज ने सावित्री को पति सत्यावान के प्राण वापस लौटाए थे। इसलिए इस दिन वट वृक्ष की पूजा और कथा का पाठ करने से महिलाओं को व्रत का पूरा फल मिलता है। यहां विस्तार से पढ़ें वट सावित्री व्रत की संपूर्ण कथा।एक बार देवी पार्वती ने भगवान शिव से पूछा “हे प्रभु! आप सर्वज्ञ हैं। आप मुझे वह पुण्यकारी कथा सुनाइए जो महिलाओं के लिए अत्यंत शुभ फलदायक हो, पतिव्रता धर्म को दृढ़ करने वाली हो और सौभाग्य प्रदान करने वाली हो। प्रभास क्षेत्र में स्थित सावित्री देवी की कथा मुझे सुनाइए, जिसकी महिमा आज भी वट सावित्री व्रत के रूप में पूजी जाती है।'तब भगवान शिव बोले “हे पार्वती! मैं तुम्हें एक ऐसी कथा सुनाता हूं जो महिलाओं के लिए आस्था, शक्ति और पतिव्रता धर्म की अद्भुत मिसाल है। यह कथा प्रभास क्षेत्र की है, जहां ‘सावित्री स्थल’ नामक स्थान पर वट सावित्री व्रत की महान परंपरा का आरंभ हुआ।' बहुत समय पहले मद्रदेश में अश्वपति नामक एक प्रतापी और धर्मनिष्ठ राजा राज्य करता था। वह सत्यवादी, क्षमाशील और प्रजावत्सल था, परंतु उसे कोई संतान नहीं थी। संतान की प्राप्ति के लिए उसने कई वर्षों तक नित्य सावित्री देवी की पूजा की। अंततः उसकी तपस्या और भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं सावित्री देवी प्रकट हुईं और उसे पुत्री प्राप्ति का वरदान दिया।कुछ समय बाद अश्वपति की रानी ने एक दिव्य कन्या को जन्म दिया, जो रूप, गुण और तेज में स्वयं देवी सावित्री का अंश मानी गई। राजा ने उसका नाम भी ‘सावित्री’ ही रखा। वह कन्या बड़ी होकर अत्यंत सुंदर, गुणवान और तेजस्विनी बनी। नगरवासी उसे देखकर यही कहते कि यह कोई साधारण कन्या नहीं, देवी का अवतार है। जब सावित्री यौवनावस्था में पहुंची तो राजा अश्वपति ने विवाह की चिंता की। उन्होंने अपनी पुत्री से कहा, पुत्री तुम्हारा विवाह योग्य समय आ गया है, परंतु मैं तुम्हारे लिए कोई उपयुक्त वर नहीं ढूंढ पा रहा हूं। अतः मैं तुम्हें अनुमति देता हूं कि तुम स्वयं अपने लिए योग्य वर का चयन करो।'राजा के निर्देश पर सावित्री कुछ वृद्ध और बुद्धिमान मंत्रियों के साथ वन क्षेत्रों की यात्रा पर निकली, जहां उन्होंने कई तपस्वी और राजवंशीय परिवारों को देखा और अंततः शाल्व देश के निष्कासित राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को अपना वर चुन लिया। सत्यवान नेत्रहीन राजा के साथ वन में जीवन व्यतीत कर रहा था। वह अत्यंत धर्मनिष्ठ, सत्यवादी और सेवा-परायण युवक था। जब सावित्री अपने चयन की जानकारी लेकर लौटी तो वहां देवर्षि नारद पहले से उपस्थित थे। उन्होंने सत्यवान के बारे में सुनते ही कहा, 'हे राजन्! सत्यवान सभी गुणों में श्रेष्ठ है, लेकिन एक दोष है वह अल्पायु है। ठीक एक वर्ष बाद उसकी मृत्यु निश्चित है।' यह सुनकर भी सावित्री ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया “वर एक बार ही वरण किया जाता है। चाहे वह दीर्घायु हो या अल्पायु, मैंने सत्यवान को अपना पति स्वीकार कर लिया है। अब कोई और मेरा वर नहीं हो सकता।” राजा ने सावित्री की दृढ़ता देखकर नारद की सहमति से शुभ मुहूर्त में सत्यवान से उसका विवाह कर दिया। विवाह के पश्चात सावित्री पति के साथ वन में निवास करने लगी और आश्रम जीवन को अपनाया।सावित्री को नारद मुनि की कही बात याद थी, इसलिए वह प्रतिदिन दिन-रात की गणना करती रही। जब सत्यवान की मृत्यु के तीन दिन शेष रह गए, तब सावित्री ने उपवास का संकल्प लिया। तीसरे दिन उसने वटवृक्ष के नीचे व्रत करते हुए देवी सावित्री की पूजा की। पूजा उपरांत वह अपने पति सत्यवान के साथ लकड़ी लेने वन की ओर गई। वन में सत्यवान को अचानक सिर में तेज पीड़ा हुई और वह सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गया। तभी सावित्री ने देखा कि एक तेजस्वी, कृष्ण वर्ण, पीतवस्त्रधारी, मुकुटधारी पुरुष वहां आए, जिनकी उपस्थिति दिव्य प्रतीत हो रही थी। सावित्री ने उन्हें प्रणाम करके पूछा, 'आप कौन हैं?'वे बोले 'मैं यमराज हूं। तुम्हारे पति की आयु पूर्ण हो चुकी है। अतः मैं स्वयं उसकी आत्मा लेने आया हूं। यमराज ने सत्यवान की आत्मा को अंगुष्ठ के आकार में निकालकर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया। सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने कई बार उसे रोका, परंतु सावित्री बार-बार विनम्रता से उत्तर देती रही “जहां मेरे पति जाएंगे, वहीं मेरी गति है। पत्नी का धर्म है कि वह पति का साथ न छोड़े।सावित्री की दृढ़ता, भक्ति और मधुर वाणी से प्रसन्न होकर यमराज ने कहा, मांगो, तुम्हें जो भी वर चाहिए। सावित्री ने कहा मेरे सास-ससुर की नेत्र ज्योति लौट आए। यमराज बोले “तथास्तु।” थोड़ा आगे बढ़ने पर यमराज ने फिर वर मांगने को कहा। सावित्री ने कहा मेरे ससुर को उनका खोया हुआ राज्य प्राप्त हो। यमराज बोले तथास्तु। अंत में, यमराज ने तीसरी बार वर मांगने को कहा। सावित्री ने कहा “मुझे सत्यवान से उत्पन्न सौ पुत्रों का वर दीजिए। यमराज मुस्कुराए और बोले तथास्तु। परंतु अगले ही क्षण उन्हें भान हुआ कि यह वर तभी संभव है जब सत्यवान जीवित रहेगा।अपनी ही बातों में बंधकर यमराज ने सत्यवान की आत्मा को मुक्त कर दिया और कहा 'हे पतिव्रता स्त्री! तुम्हारे सत्य, तप, भक्ति और प्रेम ने मुझे भी पराजित कर दिया। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि तुम्हारा वैवाहिक जीवन दीर्घ और सुखमय हो।' सावित्री अपने पति सत्यवान के साथ लौट आईं। आश्रम में पहुंचने पर उन्होंने देखा कि उनके सास-ससुर की आंखों की ज्योति लौट आई है और द्युमत्सेन को उनका राज्य भी प्राप्त हो गया है। समय के साथ सावित्री को सौ पुत्र भी प्राप्त हुए और वह पतिव्रता धर्म की प्रतीक बन गईं। एक बार देवी पार्वती ने भगवान शिव से पूछा “हे प्रभु! आप सर्वज्ञ हैं। आप मुझे वह पुण्यकारी कथा सुनाइए जो महिलाओं के लिए अत्यंत शुभ फलदायक हो, पतिव्रता धर्म को दृढ़ करने वाली हो और सौभाग्य प्रदान करने वाली हो। प्रभास क्षेत्र में स्थित सावित्री देवी की कथा मुझे सुनाइए, जिसकी महिमा आज भी वट सावित्री व्रत के रूप में पूजी जाती है।तब भगवान शिव बोले “हे पार्वती! मैं तुम्हें एक ऐसी कथा सुनाता हूं जो महिलाओं के लिए आस्था, शक्ति और पतिव्रता धर्म की अद्भुत मिसाल है। यह कथा प्रभास क्षेत्र की है, जहां ‘सावित्री स्थल’ नामक स्थान पर वट सावित्री व्रत की महान परंपरा का आरंभ हुआ।” बहुत समय पहले मद्रदेश में अश्वपति नामक एक प्रतापी और धर्मनिष्ठ राजा राज्य करता था। वह सत्यवादी, क्षमाशील और प्रजावत्सल था, परंतु उसे कोई संतान नहीं थी। संतान की प्राप्ति के लिए उसने कई वर्षों तक नित्य सावित्री देवी की पूजा की। अंततः उसकी तपस्या और भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं सावित्री देवी प्रकट हुईं और उसे पुत्री प्राप्ति का वरदान दिया।कुछ समय बाद अश्वपति की रानी ने एक दिव्य कन्या को जन्म दिया, जो रूप, गुण और तेज में स्वयं देवी सावित्री का अंश मानी गई। राजा ने उसका नाम भी ‘सावित्री’ ही रखा। वह कन्या बड़ी होकर अत्यंत सुंदर, गुणवान और तेजस्विनी बनी। नगरवासी उसे देखकर यही कहते कि यह कोई साधारण कन्या नहीं, देवी का अवतार है। जब सावित्री यौवनावस्था में पहुंची तो राजा अश्वपति ने विवाह की चिंता की। उन्होंने अपनी पुत्री से कहा, “पुत्री, तुम्हारा विवाह योग्य समय आ गया है, परंतु मैं तुम्हारे लिए कोई उपयुक्त वर नहीं ढूंढ पा रहा हूं। अतः मैं तुम्हें अनुमति देता हूं कि तुम स्वयं अपने लिए योग्य वर का चयन करो।” राजा के निर्देश पर सावित्री कुछ वृद्ध और बुद्धिमान मंत्रियों के साथ वन क्षेत्रों की यात्रा पर निकली, जहां उन्होंने कई तपस्वी और राजवंशीय परिवारों को देखा और अंततः शाल्व देश के निष्कासित राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को अपना वर चुन लिया। सत्यवान नेत्रहीन राजा के साथ वन में जीवन व्यतीत कर रहा था। वह अत्यंत धर्मनिष्ठ, सत्यवादी और सेवा-परायण युवक था।जब सावित्री अपने चयन की जानकारी लेकर लौटी तो वहां देवर्षि नारद पहले से उपस्थित थे। उन्होंने सत्यवान के बारे में सुनते ही कहा, “हे राजन! सत्यवान सभी गुणों में श्रेष्ठ है, लेकिन एक दोष है वह अल्पायु है। ठीक एक वर्ष बाद उसकी मृत्यु निश्चित है।” यह सुनकर भी सावित्री ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया “वर एक बार ही वरण किया जाता है। चाहे वह दीर्घायु हो या अल्पायु, मैंने सत्यवान को अपना पति स्वीकार कर लिया है। अब कोई और मेरा वर नहीं हो सकता। राजा ने सावित्री की दृढ़ता देखकर नारद की सहमति से शुभ मुहूर्त में सत्यवान से उसका विवाह कर दिया। विवाह के पश्चात सावित्री पति के साथ वन में निवास करने लगी और आश्रम जीवन को अपनाया। सावित्री को नारद मुनि की कही बात याद थी, इसलिए वह प्रतिदिन दिन-रात की गणना करती रही। जब सत्यवान की मृत्यु के तीन दिन शेष रह गए, तब सावित्री ने उपवास का संकल्प लिया। तीसरे दिन उसने वटवृक्ष के नीचे व्रत करते हुए देवी सावित्री की पूजा की। पूजा उपरांत वह अपने पति सत्यवान के साथ लकड़ी लेने वन की ओर गई।वन में सत्यवान को अचानक सिर में तेज पीड़ा हुई और वह सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गया। तभी सावित्री ने देखा कि एक तेजस्वी, कृष्ण वर्ण, पीतवस्त्रधारी, मुकुटधारी पुरुष वहां आए, जिनकी उपस्थिति दिव्य प्रतीत हो रही थी। सावित्री ने उन्हें प्रणाम करके पूछा,आप कौन हैं? वे बोले “मैं यमराज हूं। तुम्हारे पति की आयु पूर्ण हो चुकी है। अतः मैं स्वयं उसकी आत्मा लेने आया हूं। यमराज ने सत्यवान की आत्मा को अंगुष्ठ के आकार में निकालकर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया। सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने कई बार उसे रोका, परंतु सावित्री बार-बार विनम्रता से उत्तर देती रही “जहां मेरे पति जाएंगे, वहीं मेरी गति है। पत्नी का धर्म है कि वह पति का साथ न छोड़े। सावित्री की दृढ़ता, भक्ति और मधुर वाणी से प्रसन्न होकर यमराज ने कहा, “मांगो, तुम्हें जो भी वर चाहिए। सावित्री ने कहा “मेरे सास-ससुर की नेत्र ज्योति लौट आए।” यमराज बोले 'तथास्तु।'थोड़ा आगे बढ़ने पर यमराज ने फिर वर मांगने को कहा। सावित्री ने कहा “मेरे ससुर को उनका खोया हुआ राज्य प्राप्त हो। यमराज बोले 'तथास्तु।' अंत में, यमराज ने तीसरी बार वर मांगने को कहा। सावित्री ने कहा “मुझे सत्यवान से उत्पन्न सौ पुत्रों का वर दीजिए। यमराज मुस्कुराए और बोले 'तथास्तु।' परंतु अगले ही क्षण उन्हें भाव हुआ कि यह वर तभी संभव है जब सत्यवान जीवित रहेगा। अपनी ही बातों में बंधकर यमराज ने सत्यवान की आत्मा को मुक्त कर दिया और कहा 'हे पतिव्रता स्त्री! तुम्हारे सत्य, तप, भक्ति और प्रेम ने मुझे भी पराजित कर दिया। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि तुम्हारा वैवाहिक जीवन दीर्घ और सुखमय हो।' सावित्री अपने पति सत्यवान के साथ लौट आईं। आश्रम में पहुंचने पर उन्होंने देखा कि उनके सास-ससुर की आंखों की ज्योति लौट आई है और द्युमत्सेन को उनका राज्य भी प्राप्त हो गया है। समय के साथ सावित्री को सौ पुत्र भी प्राप्त हुए और वह पतिव्रता धर्म की प्रतीक बन गईं।
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