Next Story
Newszop

राम पुनियानी का लेख: आपातकाल के दौरान संघ और बीजेपी की भूमिका और उसके दावे

Send Push

इस साल (2025) में जून में देश ने आपातकाल (इमरजेंसी) लागू किए जाने की 50वीं वर्षगांठ मनाई।  तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में 25 जून को देश में आपातकाल लागू किया था। इस दौर के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इस काल को कई दलित नेता काफी अलग नजर से देखते हैं और याद करते हैं कि उसके पिछले दशक में इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रीविपर्स की समाप्ति जैसे कई बड़े मौलिक फैसले लिए गए थे। इनके बारे में और इनका विश्लेषण करते हुए भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है।

इस बार केंद्रीय मंत्रिपरिषद ने आपातकाल की आलोचना करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया और उन लोगों की सराहना की जिन्होंने आपातकाल का विरोध करते हुए कुर्बानियां दीं। "उन अनगिनत लोगों का स्मरण और उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने"  का संकल्प लिया गया "जिन्होंने निर्भीकता से आपाताकाल और उसके माध्यम से भारतीय संविधान की आत्मा का क्षय करने का प्रयासों का विरोध किया था। " बीजेपी आपाताकाल के 21 महीनों के दौरान अपनी भूमिका पर बहुत जोर दे रही है। यह आरएसएस के उस दावे से मेल खाता है कि आपाताकाल का विरोध करने वाली मुख्य शक्ति वह ही थी। लेकिन उसके अधिकांश दावों की तरह इस दावे में भी सच्चाई का कोई अंश नहीं है।

कई वरिष्ठ पत्रकारों द्वारा की गई खोजबीन और कुछ के द्वारा लिखी गई पुस्तकों से कुछ अलग ही तस्वीर सामने आती है। पत्रकारिता के एक बड़े स्तंभ प्रभाष जोशी ने लिखा था, "तत्कालीन आरएसएस प्रमुख बालासाहब देवरस ने इंदिरा गांधी को एक पत्र लिखकर संजय गांधी के 20 सूत्रीय कार्यक्रम के अमल में सहायता करने की पेशकश की थी। यह है आरएसएस का असली चरित्र...आप इसमें एक पैटर्न देख सकते हैं। यहां तक कि आपातकाल के दौरान भी आरएसएस और जनसंघ से जुड़े कई व्यक्ति, जो रिहा किए गए, उन्होंने माफीनामों पर हस्ताक्षर किए। वे क्षमायाचना करने वाले शुरूआती लोगों में से थे...अटल बिहारी वाजपेयी ज्यादातर समय अस्पताल में रहे...लेकिन आरएसएस ने आपातकाल के खिलाफ कोई संघर्ष नहीं किया। तो फिर आज बीजेपी उसका यश क्यों हड़पना चाहती है?‘‘

वे अंत में निष्कर्ष इन शब्दों में प्रस्तुत करते हैं, "वह कोई जुझारू संगठन नहीं है, और वे कभी संघर्ष के लिए उत्सुक नहीं रहते हैं. मूलतः वे समझौतावादी हैं। वे कभी दिल से, ईमानदारी से सरकार के खिलाफ नहीं रहे।"

उत्तर प्रदेश और सिक्किम के पूर्व राज्यपाल टी वी राजेश्वर ने ‘इंडियाः द क्रूशियल ईयर्स‘ (हार्पर कोलिन्स) शीर्षक की एक पुस्तक लिखी है। वे भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि "वे (आरएसएस) न केवल उसका (आपातकाल का) समर्थन कर रहे थे, बल्कि वे इंदिरा गांधी के साथ-साथ संजय गांधी से भी संवाद स्थापित करना चाहते थे।"

बीजेपी के ही सुब्रमण्यम स्वामी ने ‘द हिन्दू‘ में लिखे गए एक लेख में आपातकाल से जुड़ी एक घटना बयान की है (13 जून 2000). उनका दावा है कि तत्कालीन आरएसएस प्रमुख बालासाहेब देवरस और पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने आपातकाल-विरोधी आंदोलन के साथ विश्वासघात करते हुए इंदिरा गांधी को पत्र लिखे थे जिनमें क्षमायाचना की गई थी। "यह महाराष्ट्र विधानसभा की कार्यवाही के रिकार्ड में दर्ज है कि तत्कालीन आरएसएस प्रमुख बालासाहेब देवरस ने पुणे की यरवदा जेल से इंदिरा गांधी को कई पत्र लिखे थे जिनमें क्षमायाचना की गई थी। उन्होंने आरएसएस के जेपी के नेतृत्व वाले आंदोलन से अलग हो जाने और 20-सूत्रीय कार्यक्रम से जुड़े कार्य करने की पेशकश भी की थी। इंदिरा गांधी ने इनमें से किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया।"

मेरे एक मित्र डॉ. सुरेश खैरनार, जो राष्ट्र सेवा दल के पूर्व अध्यक्ष हैं, वे भी इस दौरान जेल में थे। जब उन्हें पता लगा कि आरएसएस स्वयंसवेक माफीनामों पर हस्ताक्षर कर रहे हैं, तो वे उनके इस विश्वासघात से आगबबूला हो गए और उन्होंने अपनी नाराजगी  स्वयंसेवकों से व्यक्त की. अपनी कार्यशैली के मुताबिक उन्होंने कहा कि वे तो तात्याराव (वीडी सावरकर) के बताए रास्ते पर चल रहे हैं। यह है हिन्दू राष्ट्रवादियों की रणनीति!

हमें यह भी याद है कि अटलबिहारी वाजपेयी को आगरा के पास बाटेश्वर से तब गिरफ्तार किया गया जब वे जंगल सत्याग्रह में शामिल हो रहे जुलूस को देख रहे थे, जिसके दौरान एक शासकीय भवन से यूनियन जैक को उतारकर वहां तिरंगा फहरा दिया गया था। इसके तुरंत बाद वाजपेयी ने एक पत्र लिखा और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से स्वयं को अलग कर लिया। उन्हें तुरंत रिहा कर दिया गया। इस विचारधारा के अनुयायियों का चरित्र चित्रण ऊपर दिए विवरण के अनुसार प्रभाष जोशी ने बखूबी किया है।

जब 1998 में वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार सत्ता में आई तब मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को इस फर्क का एहसास हुआ। उस समय तक कई मानवाधिकारों के प्रति समर्पित कार्यकर्ता मानते थे कि कांग्रेस और बीजेपी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन एनडीए के शासनकाल के दौरान इनमें से कईयों की यह गलतफहमी दूर हो गई।

अब मोदी पिछले करीब 11 सालों से सत्ता में हैं। सन् 2014 और 2019 में उन्हें पूर्ण बहुमत हासिल हुआ. और इस पूर्ण बहुमत के दौर में उनका असली चेहरा साफ साफ नजर आ गया। जहां इंदिरा गांधी द्वारा लागू किया गया आपातकाल पूरी तरह संविधान के प्रावधानों के अनुरूप था, वहीं इस समय हम एक ‘अघोषित आपातकाल‘ का सामना कर रहे हैं। सन् 2015 में इंडियन एक्सप्रेस के शेखर गुप्ता को दिए एक साक्षात्कार में लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था ‘‘अब आपातकाल की घोषणा के बाद 40 साल बीत चुके हैं. लेकिन पिछले एक साल से भारत में एक अघोषित आपातकाल लागू है।‘‘ (‘इंडियन एक्सप्रेस‘ 26-27 जून 2015)।

आज अभिव्यक्ति की आजादी को पूरी तरह कुचल दिया गया है। कई लोगों को सच बोलने की हिम्मत करने के जुर्म में जेल के सींखचों के पीछे पहुंचा दिया गया है. धार्मिक स्वतंत्रता में बहुत गिरावट आई है। न्याय अदालतों के माध्यम से नहीं बल्कि बुलडोजर जस्टिस के जरिए किया जा रहा है। कथित लव जिहाद और गौमांस के बहाने अल्पसंख्यकों को डराने-धमकाने और प्रताड़ित करने के घृणित कृत्य किए जा रहे हैं। भीमा कोरेगांव मामले में कई प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेलों में ठूंस दिया गया। उमर खालिद और गुलफिशा फातिमा जैसे मुस्लिम कार्यकर्ता लंबे समय से जेल में हैं, जबकि उनके प्रकरणों में सुनवाई तक शुरू नहीं हुई है। कारपोरेट नियंत्रित मीडिया सरकारी नीतियों के प्रचार और विरोध की आवाजों को दबाने में पूरे उत्साह से जुटा हुआ है।

जहां केंद्रीय मंत्रिपरिषद और आरएसएस से जुड़े संगठन 1975 के आपाताकाल का प्रतिरोध करने के दावे कर कर रहे हैं, वहीं वर्तमान सरकार दूसरे तरीकों से देश में आपातकाल जैसे हालात पैदा कर रही है. वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र के सूचकांक पर भारत की स्थिति में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। यह आवश्यक है कि हम आत्मविश्लेषण कर भारत में बने अघोषित आपातकाल के इन हालातों का मुकाबला कर उसे समाप्त करें।

(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
Loving Newspoint? Download the app now