नई दिल्ली, 23 जून . पंडित जगन्नाथ मिश्रा बिहार की राजनीति का ऐसा नाम है, जिन्होंने इतिहास के पन्नों पर अमिट छाप छोड़ी. तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे जगन्नाथ मिश्र का जीवन उपलब्धियों, विवादों और सियासी उतार-चढ़ाव की एक ऐसी गाथा है, जो आज भी लोगों के जेहन में ताजा है.
सुपौल के बलुआ बाजार में 24 जून 1937 को जन्मे जगन्नाथ मिश्र ने न केवल बिहार की सियासत को दिशा दी, बल्कि अपने समय के सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को भी उभारा. उनकी कहानी सिर्फ सत्ता की नहीं, बल्कि संघर्ष, सेवा और विवादों की भी है.
जगन्नाथ मिश्र ने अपने करियर की शुरुआत बिहार विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में की. उनकी रुचि सामाजिक और राजनीतिक कार्यों में बचपन से थी. वह विश्वविद्यालय में पढ़ाते समय ही 1960 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए. यहीं से उनका सियासी सफर शुरू हुआ.
उनके बड़े भाई ललित नारायण मिश्र ने उन्हें सियासत में आने के लिए प्रेरित किया. ललित नारायण की 1975 में बम धमाके में हत्या ने जगन्नाथ मिश्र को गहरे सदमे में डाल दिया, लेकिन इस दुख ने उन्हें और मजबूत बनाया.
उनके बड़े भाई ललित नारायण मिश्र एक प्रमुख राजनेता और रेल मंत्री रह चुके थे. उनकी हत्या के बाद जगन्नाथ मिश्र बिहार में कांग्रेस के सबसे प्रभावशाली नेता बन गए.
साल 1975 में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने जगन्नाथ मिश्र ने शिक्षा और सामाजिक सुधारों पर जोर दिया. उनके कार्यकाल में बिहार विश्वविद्यालय में सुधार और ग्रामीण विकास के लिए कई योजनाएं शुरू हुईं. उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि वह आम जनता से सीधे जुड़ते थे. उनकी सादगी और सहजता ने उन्हें जनता का नेता बनाया. पहली बार 38 वर्ष की उम्र में मुख्यमंत्री बने, जो उस समय देश के सबसे युवा मुख्यमंत्रियों में से एक थे. उनके कार्यकाल में बिहार में शिक्षा और सामाजिक सुधारों पर विशेष जोर दिया गया.
हर सियासी कहानी में कुछ मोड़ आते हैं. जगन्नाथ मिश्र की कहानी भी इससे अछूती नहीं रही. 1990 के दशक में चारा घोटाला सामने आया, जिसने बिहार की राजनीति में भूचाल ला दिया. साल 2013 में जगन्नाथ मिश्र को इस घोटाले में दोषी ठहराया गया.
चार साल की सजा और दो लाख रुपए के जुर्माने ने उनकी छवि को धक्का पहुंचाया, लेकिन उनके समर्थक मानते हैं कि वह सियासी साजिश का शिकार हुए. जगन्नाथ मिश्र ने हमेशा अपनी बेगुनाही का दावा किया और कहा कि वह बिहार के विकास के लिए समर्पित थे.
जगन्नाथ मिश्र की कहानी सिर्फ एक नेता की नहीं, बल्कि उस समय की है, जब बिहार सामाजिक और आर्थिक बदलाव के दौर से गुजर रहा था. उनके समर्थक उन्हें एक दूरदर्शी नेता मानते हैं, जिसने शिक्षा और विकास को बढ़ावा दिया. वहीं, आलोचक उनकी सत्ता की भूख और चारा घोटाले में संलिप्तता पर सवाल उठाते हैं.
शिक्षक, अर्थशास्त्री, लेखक और राजनेता के रूप में उनकी पहचान ने उन्हें बिहार के इतिहास में अमर कर दिया. सौम्य व्यक्तित्व, मैथिल संस्कृति के प्रति गहरा लगाव और जनता से सीधे जुड़ाव ने उन्हें एक अलग पहचान दी. मिथिला क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले जगन्नाथ मिश्र ने मैथिल संस्कृति को हमेशा बढ़ावा दिया. वह मिथिलांचल की कला, साहित्य और परंपराओं के प्रति गहरा लगाव रखते थे. उनके कार्यकाल में मिथिला क्षेत्र में कई सांस्कृतिक आयोजनों को सरकारी संरक्षण मिला.
उनका एक अनोखा योगदान उर्दू को बिहार की दूसरी राजभाषा का दर्जा देना था. 1980 के दशक में उनके इस फैसले ने अल्पसंख्यक समुदाय खासकर मुस्लिम समुदाय का दिल जीत लिया. इस कदम ने उन्हें ‘मौलाना मिश्रा’ की उपाधि दिलाई और उन्हें अल्पसंख्यक समुदाय का चहेता बना दिया. उर्दू को दूसरी राजभाषा का दर्जा देने का फैसला बिहार के मुस्लिम समुदाय के लिए एक बड़ा उपहार साबित हुआ. दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, कटिहार, सीतामढ़ी और भागलपुर जैसे जिलों में, जहां मुस्लिम आबादी का अच्छा-खासा हिस्सा था, इस फैसले ने कांग्रेस की लोकप्रियता को नई ऊंचाइयां दी.
वहीं, मैथिल ब्राह्मणों और मिथिलांचल के लोगों में भारी नाराजगी फैल गई. मैथिली भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने की मांग दशकों से चली आ रही थी और उन्हें लगता था कि उर्दू को प्राथमिकता देकर उनकी सांस्कृतिक पहचान को नजरअंदाज किया गया. दरअसल, उस समय मैथिल ब्राह्मण मैथिली भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की वकालत कर रहे थे.
विरोध की आग मिथिलांचल से शुरू होकर पूरे बिहार में फैल गई. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने इस फैसले के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया. सड़कों पर प्रदर्शन, नारेबाजी और पुतले जलाए गए. विरोधियों ने जगन्नाथ मिश्र पर ‘वोट बैंक की राजनीति’ और ‘सांप्रदायिकता फैलाने’ का आरोप लगाया. उनका तर्क था कि उर्दू को बढ़ावा देकर जगन्नाथ मिश्र ने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनाई.
19 अगस्त 2019 को लंबी बीमारी (कैंसर) के बाद दिल्ली में उनका निधन हो गया. उनके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार उनके पैतृक गांव बलुआ (सुपौल) में राजकीय सम्मान के साथ किया गया. बिहार सरकार ने तीन दिन के राजकीय शोक की घोषणा की थी.
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एकेएस/एकेजे
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