New Delhi, 11 जुलाई . हिंदी साहित्य में तिलिस्मी और जासूसी उपन्यासों की एक ऐसी धारा है, जिसने पाठकों को न केवल मनोरंजन प्रदान किया, बल्कि हिंदी भाषा को जन-जन तक पहुंचाने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. इस धारा के प्रमुख स्तंभों में से एक थे दुर्गा प्रसाद खत्री, जिन्होंने अपने पिता और हिंदी के प्रथम तिलिस्मी उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री की विरासत को न केवल संभाला, बल्कि उसे और समृद्ध किया.
काशी (वाराणसी) में 12 जुलाई 1895 को जन्मे दुर्गा प्रसाद खत्री ने अपने लेखन से हिंदी साहित्य में एक अमिट छाप छोड़ी. उनकी रचनाएं आज भी पाठकों को रोमांचित करती हैं. उनका जन्म उस दौर में हुआ, जब हिंदी साहित्य अपनी पहचान बना रहा था. उनके पिता देवकीनंदन खत्री ने ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ जैसे उपन्यासों के माध्यम से साहित्य को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया था.
इन उपन्यासों ने हिंदी को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. दुर्गा प्रसाद ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया और अपने लेखन में तिलिस्म, जासूसी, सामाजिक और अद्भुत कथानकों का अनूठा समन्वय किया. उन्होंने 1912 में विज्ञान और गणित में विशेष योग्यता के साथ स्कूल लीविंग परीक्षा उत्तीर्ण की और इसके बाद लेखन की दुनिया में कदम रखा. डेढ़ दर्जन से अधिक उपन्यास और 1,500 कहानियां लिखकर उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया.
तिलिस्मी उपन्यासों में ‘भूतनाथ’ और ‘रोहतास मठ’ उनकी प्रमुख रचनाएं हैं. ‘भूतनाथ’ उपन्यास को उनके पिता ने शुरू किया था, लेकिन उनकी असामयिक मृत्यु के कारण दुर्गा प्रसाद ने इस उपन्यास के शेष 15 भागों को पूर्ण किया, जिसमें उनकी लेखन शैली अपने पिता से इतनी मिलती-जुलती है कि पाठक अंतर नहीं कर पाते. रोहतास मठ जैसे उपन्यासों में भी उन्होंने तिलिस्मी और ऐयारी की परंपरा को जीवंत रखा. उनके जासूसी उपन्यास जैसे ‘प्रतिशोध’, ‘लालपंजा’, ‘रक्तामंडल’ और ‘सुफेद शैतान’, न केवल रोमांच से भरे थे, बल्कि इनमें राष्ट्रीय भावना और भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन की झलक भी दिखाई देती है.
दुर्गा प्रसाद खत्री ने उपन्यास ‘लहरी’ और ‘रणभेरी’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन भी किया, जिसके माध्यम से उन्होंने हिंदी साहित्य को और अधिक लोकप्रिय बनाया. उनकी रचनाओं में जासूसी और तिलिस्मी तत्वों के साथ-साथ राष्ट्रीय और सामाजिक मुद्दों का समावेश उनकी लेखन शैली को विशिष्ट बनाता है. उनके उपन्यासों ने न केवल मनोरंजन प्रदान किया, बल्कि पाठकों में हिंदी के प्रति प्रेम और रुचि भी जगाई. उनकी रचनाएं आज भी हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं, जो हमें उस दौर की सामाजिक और सांस्कृतिक झलक प्रदान करती हैं.
वह 5 अक्टूबर 1974 को इस दुनिया को अलविदा कह गए, लेकिन उनकी साहित्यिक विरासत आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है.
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एकेएस/एकेजे
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