सैकड़ों पुरुष कांवड़ियों के बीच खुले बाल और चश्मे में निकलती एक लड़की, जो दिल्ली-हरिद्वार हाइवे से गुज़रने वाले हर शख़्स का ध्यान अपनी ओर खींच रही है.
16 साल की लावण्या अपने गाँव की पहली लड़कियों में है, जो कांवड़ यात्रा पर निकली हैं.
वह गुरुग्राम के खेड़की दौला की रहने वाली हैं और 11वीं कक्षा में पढ़ती हैं.
हमने उनसे पूछा कि जब लोग उन्हें ऐसे मुड़-मुड़कर देखते हैं, तो उन्हें असहज नहीं महसूस होता?
वो कहती हैं, "लोग ऐसे देखते हैं जैसे उन्होंने पहले कभी किसी लड़की को चश्मा पहने नहीं देखा. पर हम क्या कर सकते हैं. जब लोग ज़्यादा घूरने लगते हैं तो मैं इसे उतारकर रख देती हूँ."
लावण्या इस यात्रा पर अपने भाई, पिता और चाचाजी के साथ चल रही हैं. घरवालों को चिंता थी कि बिना किसी महिला के वो ये यात्रा कैसे पूरा करेंगी.
वो बताती हैं, "कई चीज़ें आप अपनी माँ से ही शेयर कर सकते हो, इसलिए मम्मी को लग रहा था कि पता नहीं कैसे रहूँगी. वो इस बात को लेकर भी परेशान थीं कि अगर रास्ते में मुझे पीरियड्स आ गए, तो मैं चीज़ें कैसे संभालूँगी. लेकिन फिर मुझे यात्रा से पहले ही पीरियड्स आ गए और मम्मी मान गईं."
लावण्या को कांवड़ यात्रा में शामिल हो पाने की बहुत ख़ुशी है, लेकिन कई चीज़ें हैं, जो उन्हें परेशान भी करती हैं. जैसे कुछ लोगों का घूरना.
वो बताती हैं, ''कांवड़ यात्रा के लिए जब मैं पैकिंग कर रही थी, तो मेरे भाइयों ने मुझसे ऐसे कपड़े रखने को कहा था, जिससे रास्ते में कोई ग़लत नज़र से न देखे. मैंने फिर उसी हिसाब से कपड़े चुने, फिर भी कुछ लोग होते ही हैं, जो आपको ग़लत नज़र से देखते हैं. तो उनकी नज़र तो नहीं पकड़ी जा सकती न!''
''जबकि आप लड़कों को देखो, उनके कपड़े देखो. मेरे ख़ुद के भाई अंडरवियर में घूमते हैं. तो मुझे वो चीज़ भी असहज करती है. किसे समझाया जाए. मान लो भाई को समझा लूँगी, लेकिन बाक़ी लोगों को कौन समझाएगा.''
नहाने और कपड़े बदलने की समस्यालावण्या का कहना है कि इस पूरी यात्रा में उन्हें सबसे ज़्यादा परेशानी कपड़े बदलने और नहाने के दौरान हुई है.
उनके मुताबिक़ कई जगहों पर पुरुष और महिला कांवड़ियों के लिए अलग-अलग स्नानघर की सुविधा नहीं है. कम शौचालय को भी वो एक बड़ी समस्या बताती हैं.
वो कहती हैं, ''लड़के तो कुछ भी खा लेते हैं, कहीं भी नहा लेते हैं. लेकिन मुझे तो सोचना पड़ता है क्योंकि यात्रा के नियम कहते हैं कि खाना खाने के तुरंत बाद नहाओ. ऐसे में खा तो लूँ, लेकिन कपड़े बदलने की दिक़्क़त होती है. इसलिए ज़्यादातर समय तो मैं ढंग से खा भी नहीं पाती.''
एक पूरा दिन महिला कांवड़ियों के साथ गुज़ारने के दौरान हमारी मुलाक़ात 66 साल की सुरेश देवी से हुई. सुरेश देवी के मुताबिक़ ये उनकी 36वीं कांवड़ यात्रा है.
ऐसे में हमने उनसे समझना चाहा कि इन सालों में उन्होंने कांवड़ यात्रा को कितना बदलता देखा? ख़ासकर महिलाओं के संदर्भ में ये यात्रा कैसे बदली?
सुरेश देवी बताती हैं, ''पुराने समय में सुविधाएँ कम भले थीं, लेकिन भीड़ इतनी अधिक नहीं होती थी, डीजे का शोर नहीं होता था, आप भक्ति में डूबकर शांति से यात्रा करते थे. लेकिन अब सुविधाएँ बढ़ी हैं, तो भीड़ भी बढ़ी है. डीजे लाने का इतना चलन हो चुका है कि दिल में चोट सी लगती है. डीजे के शोर के कारण मैं फ़ोन लेकर भी नहीं आती.''
हालाँकि उनकी ही सहेली और इस यात्रा में उनकी सह-यात्री कुसुम देवी को डीजे से किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होती.
उनके अनुसार डीजे की धुन उनके चलने की रफ़्तार को तेज़ कर देती है और उन्हें आनंद की अनुभूति होती है.

लेकिन 16 साल की लावण्या का कहना है कि डीजे के साथ होने वाला अश्लील डांस उन्हें असहज करता है.
वो कहती हैं, ''कई लोग डीजे पर ग़लत तरीक़े से डांस करते हैं. उससे बहुत असहज महसूस होता है. कई लोग चलते-चलते कांवड़ में टक्कर भी मार देते हैं.''
यूपी सरकार ने इस साल कांवड़ यात्रा के दौरान डीजे को लेकर कई निर्देश दिए थे.
डीजे की ऊँचाई, लंबाई की सीमा के साथ ही शोर सीमा भी निर्धारित की गई थी. इसके बावजूद कई जगहों पर हमें तय शोर सीमा यानी 75 डेसिबल से अधिक की आवाज़ सुनाई दी.
हालाँकि डीजे की लंबाई और चौड़ाई के मामले में प्रशासन ज़रूर सख़्त दिखा.
जहाँ तक सवाल नहाने, शौचालय और यात्रा के दौरान महिलाओं की सुरक्षा का है, तो सुरेश देवी का कहना है कि हर जगह अलग स्नानघर की सुविधा नहीं होती, इसलिए कई बार पुरुषों के बीच में ही नहाना और कपड़े बदलना पड़ता है.
वो कहती हैं, ''दो-चार औरतें मिलकर कपड़े से एक को ढँकती हैं और फिर एक-एक कर हम कपड़े बदलते हैं. किसी को रास्ते में पीरियड्स आ गए, तब परेशानी ज़्यादा बढ़ जाती है. इस सूरत में हम उनकी मदद करते हैं. उन्हें पैड लेकर देते हैं और उनकी कांवड़ भी उठाते हैं.''
रही बात सुरक्षा की, तो सुरेश देवी का मानना है कि धार्मिक यात्राओं में ऐसे मामले कम ही देखने को मिलते हैं, जहाँ कोई किसी को छेड़ रहा हो, या बदतमीज़ी कर रहा हो. पुलिस प्रशासन की भारी तैनाती रहती है.
वो बताती हैं, ''इसके बावजूद अगर आजकल के लड़के किसी तरह की बकवास करते हैं, तो मैं तो बस आँखें दिखा देती हूँ और वो डर जाते हैं.''
दूसरी तरफ़ कुसुम देवी का मानना है कि स्थितियाँ पहले से बहुत अच्छी हुई हैं. रात के 11, दो बजे औरतें यात्रा करती हैं, सड़क-चौराहे पर सोती हैं लेकिन किसी तरह की समस्या नहीं आती.
महिलाएँ कैसे सैकड़ों किलोमीटर की यात्राएँ कर लेती हैं.
ऐसे सवाल पर कुसुम देवी कहती हैं, ''भोले (पुरुष कांवड़िये) थक जाते हैं, पर भोलियाँ (महिला कांवड़िया) नहीं थकतीं.''
बुलंदशहर की रहने वालीं सुरेश देवी बताती हैं कि घर पर उन्हें सब्ज़ी ख़रीदने जाने की हिम्मत नहीं होती, लेकिन यहाँ बिना थके सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर लेती हैं.
और वाक़ई 66-65 की उम्र में सुरेश देवी और कुसुम देवी की रफ़्तार आपको हैरान करती है.
सोने के लिए सुरक्षित जगह ढूँढ़ने की चुनौती
सारी चुनौतियों में एक चुनौती सोने की भी है. कांवड़ यात्रा कवर करने के दौरान ही दिल्ली-हरिद्वार हाइवे पर हमारी मुलाक़ात एक महिला से हुई थी.
वह अपनी दो बेटियों के साथ यात्रा कर रही थीं. उन्होंने बताया था कि वह रातभर जगकर अपनी बेटियों की पहरेदारी करती हैं, ताकि वो बिना किसी डर सो सकें.
लावण्या का कहना है कि इन्हीं कारणों से उनके परिवार ने अपने साथ ऑटो लेकर चलने का निर्णय लिया था.
जब शाम ढलती है और सोने का वक़्त आता है, तो उनके भाई, पिता और चाचाजी, ऑटो को घेरकर सो जाते हैं, वहीं लावण्या ऑटो के अंदर सोती हैं.
लावण्या का कहना है कि अपने सोने के लिए ये जगह उन्होंने ख़ुद तय की थी.
वह कहती हैं कि भविष्य में उनके जैसी किसी लड़की को कांवड़ यात्रा के दौरान ऐसी कोई तक़लीफ़ न हो, इसके लिए कुछ न कुछ ज़रूर किया जाना चाहिए.
लावण्या के मुताबिक़, 'अगर सरकार अभी कुछ नहीं करती तो भविष्य में जब कभी वो किसी ऐसे मुकाम पर पहुंचेंगी, जहाँ से इन समस्याओं का निदान करना संभव होगा, तो वो ज़रूर करेंगी ताकि किसी दूसरी लावण्या को इन तकलीफ़ों से दो-चार न होना पड़े.'
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- कांवड़ यात्रा क्या है, क्या है इसका महत्व?
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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