लाल क़िले से लगातार बारहवीं बार स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर भाषण देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ ऐसा कहा जो पिछले ग्यारह सालों में दिए भाषणों में नहीं कहा था.
उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का ज़िक्र करते हुए उसे दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ बताया और संघ की सौ साल की यात्रा की सराहना की. साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि सेवा, समर्पण, संगठन और अप्रतिम अनुशासन इस संगठन की पहचान रहे हैं.
ये बात छुपी हुई नहीं है कि पिछले कुछ समय से भारतीय जनता पार्टी और संघ के बीच कई मुद्दों को लेकर तनातनी के हालात रहे हैं.
ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी के अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में आरएसएस का ज़िक्र करने के मायने बढ़ जाते हैं.
पीएम मोदी ने संघ पर क्या कहा?अपने 103 मिनट लंबे भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने आरएसएस का ज़िक्र 82वें मिनट में किया.
आरएसएस पर आने से पहले मोदी ने कहा, "हमारा स्पष्ट मत है, ये देश सिर्फ सरकारें नहीं बनाती हैं, ये देश राजसत्ता पर विराजमान लोग ही नहीं बनाते हैं, ये देश शासन की विधा संभालने वाले नहीं बनाते हैं. ये देश बनता है कोटि-कोटि जनों के पुरुषार्थ से, ऋषियों के, मुनियों के, वैज्ञानिकों के, शिक्षकों के, किसानों के, जवानों के, सेना के, मजदूरों के, हर किसी के प्रयास से देश बनता है. हर किसी का योगदान होता है. व्यक्ति का भी होता है, संस्थाओं का भी होता है."
इसके बाद प्रधानमंत्री ने आरएसएस के बारे में बात करते हुए कहा, "आज मैं बहुत गर्व के साथ एक बात का ज़िक्र करना चाहता हूं. आज से सौ साल पहले एक संगठन का जन्म हुआ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सौ साल की राष्ट्र की सेवा का एक बहुत ही गौरवपूर्ण स्वर्णिम पृष्ठ है."
उन्होंने कहा, "व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण के संकल्प को लेकर के, सौ साल तक मां भारती का कल्याण का लक्ष्य लेकर के, लक्ष्यावधि स्वयंसेवकों ने मातृभूमि के कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित किया है."
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए पीएम मोदी ने कहा, "सेवा, समर्पण, संगठन और अप्रतिम अनुशासन, यह जिसकी पहचान रही है, ऐसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का यह सबसे बड़ा एनजीओ है एक प्रकार से, सौ साल का उसका समर्पण का इतिहास है."
"मैं आज यहां लाल किले के प्राचीर से सौ साल की इस राष्ट्र सेवा की यात्रा में योगदान करने वाले सभी स्वयंसेवकों को आदरपूर्वक स्मरण करता हूं और देश गर्व करता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इस सौ साल की भव्य, समर्पित यात्रा को और हमें प्रेरणा देता रहेगा."
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पिछले कुछ समय से माना जा रहा है कि बीजेपी और संघ के बीच रिश्ते सामान्य नहीं हैं.
साल 2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के बहुमत हासिल ना कर पाने के पीछे बड़ी वजह ये मानी गई थी कि संघ ने बीजेपी के लिए उस तरह से ज़मीनी स्तर पर काम नहीं किया जिसकी उम्मीद बीजेपी कर रही थी.
पिछले लोकसभा चुनाव के बीच बीजेपी नेता जेपी नड्डा का वो बयान भी आया था जिसमें उन्होंने बीजेपी के सक्षम होने और उसे आरएसएस की ज़रूरत ना होने की बात कही थी.
हालांकि नड्डा के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए संघ ने इस मामले को एक "पारिवारिक मामला" बताया था और कहा था कि संघ ऐसे मुद्दों पर सार्वजनिक मंचों पर चर्चा नहीं करता.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि नड्डा के बयान के बाद संघ में कई लोगों ने माना कि वो बयान उन्होंने अपनी मर्ज़ी से नहीं दिया था बल्कि उनसे दिलवाया गया था.
साथ ही संघ को लगने लगा कि उसकी भूमिका को लेकर बीजेपी में नए सिरे से सोचा जा रहा है.
नीलांजन मुखोपाध्याय एक लेखक और राजनीतिक विश्लेषक-पत्रकार हैं, जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रमुख हस्तियों पर किताबें लिखी हैं.
वो कहते हैं, "अगर आपको याद हो तो मोहन भागवत ने भाजपा नेतृत्व के ख़िलाफ़ बिना किसी का नाम लिए कई सीधी और स्पष्ट टिप्पणियां की थीं. उन्होंने 'आदर्श सेवक कौन है' से लेकर कई ऐसी बातें कहीं जिसमें नरेंद्र मोदी का नाम लिए बिना उन्होंने सब कुछ कह दिया."
लोकसभा नतीजों के बाद जब बीजेपी की सीटें घटीं तो उसने फिर एक बार संघ से रिश्ते सुधारने की कोशिश की.
इसके बाद ही बीजेपी और आरएसएस के बीच सुलह-सफाई शुरू हुई और जिस तरह का समन्वय हुआ उसका नतीजा हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनावों में दिखाई दिया.
तो सवाल ये उठता है कि स्वतंत्रता दिवस भाषण में संघ की तारीफ करने के पीछे मोदी की क्या मंशा हो सकती है?
लेखिका और राजनीतिक विश्लेषक राधिका रामशेषण कहती हैं, "पीएम मोदी के आरएसएस के साथ खट्टे-मीठे रिश्ते हैं. पिछले सालों में जो भी स्वतंत्रता दिवस भाषण हुए हैं उसमें मोदी ने आरएसएस का ज़िक्र नहीं किया."
उन्होंने कहा, "उन्होंने एक तरह से आरएसएस का जो समर्थन है वो टेकन फ़ॉर ग्रांटेड ले लिया था (ये समझ लिया था कि संघ हमेशा उनका समर्थन करेगा) कि आरएसएस के पास मोदी को समर्थन देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है."
"उन्हें लगता था कि उनकी बोलने की कला, आकर्षण शक्ति और संगठन बनाने की योग्यता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता है. लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में आरएसएस ने एक सबक सिखाया मोदी को क्योंकि ये देखा गया कि आरएसएस के जो कार्यकर्ता सालों से ज़मीनी स्तर पर सक्रिय थे उन्होंने उतना जोश नहीं दिखाया."
राधिका रामशेषण कहती हैं कि फिर मोदी ने बहुत रिश्ते सुधारने की कोशिश की. "मसलन कास्ट सेंसस (जाति जनगणना) की घोषणा करने के एक दिन पहले उन्होंने मोहन भागवत से मुलाक़ात की और उसके बाद एक तरह से उनका ग्रीन सिग्नल मिलने पर ही उसका ऐलान किया."
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नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि स्वतंत्रता दिवस भाषण में संघ की तारीफ़ को समझने के लिए बीते कुछ सालों की पृष्ठभूमि को समझना ज़रूरी है.
वो कहते हैं, "पृष्ठभूमि ये है कि डेढ़ साल से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की लीडरशिप के साथ मोदी जी की इस बात पर लड़ाई चल रही है कि वो किस तरीके से भारतीय जनता पार्टी को चलाएंगे. क्या वो बीजेपी को एक निरंकुश, सत्तावादी या एकतरफ़ा तरीके से चलाएंगे या उस तरह चलाएंगे जैसे बीजेपी पहले चलती थी जिसमें आम सहमति पर ज़ोर दिया जाता था?"
अपनी बात को जारी रखते हुए मुखोपाध्याय कहते हैं, "आपके (बीजेपी के) आज तक के इतिहास में पहली बार इतने लंबे वक्त तक पार्टी अध्यक्ष का चुनाव नहीं हुआ है. आप उसके बारे में ज़िक्र भी नहीं करते, क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ उस मुद्दे पर दिक्कत चल रही है."
"बीजेपी काम करने की आज़ादी चाहती है, संघ कहता है कि आम सहमति से काम करना चाहिए. अब उपराष्ट्रपति का सेलेक्शन होना है. संघ की ये उम्मीदें रहेंगी कि उनसे परामर्श किया जाएगा या कम से कम उन्हें कुछ नाम सुझाए जाएंगे."
मुखोपाध्याय के मुताबिक़ पीएम मोदी का संघ की तारीफ़ करना इन सब मुद्दों को संतुलन में लाने की कोशिश है.
वो कहते हैं, "वो कह रहे हैं कि 'मैं अपना बॉस खुद बनूँगा' लेकिन बदले में मैं एक सार्वजनिक मंच से तुम्हारी तारीफ़ करके थोड़ी रियायत करूँगा. वो साथ ही आरएसएस को उसकी सीमा बता रहे हैं. वो बता रहे हैं कि वो संघ को इस तरह के सर्टिफ़िकेट देंगे लेकिन वो उससे उन मामलों पर परामर्श नहीं करेंगे जिनके बारे में उन्हें लगता है कि परामर्श करने की ज़रूरत नहीं है."
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कुछ ही महीनों में बिहार में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. अगले साल असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी में चुनाव होने हैं.
तो क्या सार्वजनिक तौर पर संघ की तारीफ़ का आने वाले चुनावों से भी कुछ वास्ता है?
राधिका रामशेषण कहती हैं कि 15 अगस्त के भाषण में जिस तरह पीएम मोदी ने आरएसएस की तरफ हाथ बढ़ाया है वो काफ़ी महत्वपूर्ण बात है.
वो कहती हैं, "अभी बिहार के चुनाव आ रहे हैं और अगले साल और भी बहुत महत्वपूर्ण चुनाव आ रहे हैं. ये कहना मुश्किल है कि आरएसएस तमिलनाडु या बिहार में कितनी ताक़तवर है लेकिन उसमें बीजेपी को नुक़सान पहुँचाने की क्षमता है."
राधिका रामशेषण के मुताबिक़, "अगर आरएसएस चाहे तो वो खेल पलट सकती है. वो वर्ड ऑफ़ माउथ (ज़ुबानी तरीक़े) से काम करते हैं... एक तरह से विस्पर कैंपेन करते हैं और अगर वो विस्पर कैंपेन में कहते हैं कि इनको (बीजेपी को) ना वोट दो और जो उनके जो राइवल्स हैं उनको वोट दो तो फिर बीजेपी के लिए मुश्किल हो जाएगी."
वो कहती हैं, "तो उनके लिए (मोदी के लिए) आरएसएस को खुश रखना बहुत ही ज़रूरी है. चाहे अभी भी मोदी इस भ्रम में होंगे कि मैं ही बीजेपी का मुख्य वोट कैचर हूँ, पर मेरे हिसाब से आरएसएस मोदी का वो भ्रम तोड़ना चाहती है."
नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि स्वतंत्रता दिवस के भाषण में संघ का ज़िक्र करके पीएम मोदी ये "सुनिश्चित कर रहे हैं कि आरएसएस बिहार में उन्हें धोखा न दे और उनके लिए ज़्यादा दिक्कतें न पैदा करे. साथ ही वो चाहते हैं कि आरएसएस बीजेपी को अपनी पसंद का पार्टी अध्यक्ष बनाने की इजाज़त दे और अपनी मर्ज़ी का उपराष्ट्रपति भी."

राधिका रामशेषण के मुताबिक़ संघ की तारीफ़ बीजेपी और संघ के बीच होने वाले क्विड प्रो क्वो (कुछ पाने के बदले कुछ देना) की तरफ भी इशारा करती है.
वो कहती हैं, "बीजेपी के अगले अध्यक्ष को लेकर मीडिया में अनुमान लगाए जा रहे हैं लेकिन जेपी नड्डा तो अपने पद पर बिल्कुल कायम हैं. तो मुझे लगता है कि आरएसएस जिनको चाहता है मोदी उन्हें नहीं चाहते हैं, तो वहाँ कुछ तो मामला अटका हुआ है. अब आने वाले दिनों में ये देखना दिलचस्प होगा कि बीजेपी के अध्यक्ष कौन बनते हैं. मुझे लगता है कि उपराष्ट्रपति से ज़्यादा बीजेपी के अध्यक्ष कौन बनते हैं वो बहुत महत्वपूर्ण होगा."
रामशेषण के मुताबिक़ "क्विड प्रो क्वो हो सकता है".
वो कहती हैं, "बीजेपी अपनी पसंद का उपराष्ट्रपति बना सकती है. आरएसएस के लिहाज़ से देखा जाए तो बीजेपी के अध्यक्ष का पद बहुत महत्वपूर्ण है, तो संघ चाहेगा कि बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष उसकी पसंद का बने."
वो कहती हैं, "लेकिन मुझे नहीं लगता है कि आरएसएस ऐसे व्यक्ति को बनाएगा जो मोदी और अमित शाह को बिल्कुल भी मान्य न हो. इस वक़्त आरएसएस भी उतना ख़तरा नहीं लेना चाहेगा. तो आने वाले दिनों में कुछ कॉम्प्रोमाइज़्ड फॉर्मूला ज़रूर दिख जायेगा."
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक बड़ी आलोचना ये रही है कि उसने ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से हिस्सा नहीं लिया था.
इसी संदर्भ में पीएम मोदी के अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में लाल किले से आरएसएस की तारीफ़ करने पर भी सवाल उठ रहे हैं.
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने एक्स पर लिखा, "स्वतंत्रता दिवस के भाषण में आरएसएस का महिमामंडन करना स्वतंत्रता संग्राम का अपमान है. आरएसएस और उसके वैचारिक सहयोगियों ने अंग्रेजों का साथ दिया है. वे कभी आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं हुए और अंग्रेजों का जितना विरोध किया, उससे कहीं ज़्यादा गांधी से नफ़रत करते थे."
नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, "लाल किले से सबसे पहला भाषण 1947 में नहीं दिया गया था, 1948 में दिया गया था. जिस समय ये भाषण दिया गया था, उस समय हिंदुस्तान में गांधीजी की हत्या के बाद शोक का वातावरण पूरी तरह से छाया हुआ था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उस समय प्रतिबंधित संगठनों में से था और उनके प्रमुख नेता जेल में थे. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उस समय अपने भाषण में गांधीजी की हत्या का ज़िक्र किया था."
अपनी बात जारी रखते हुए वे कहते हैं, "गांधी की हत्या किसने की थी? वो थे जिनका पहला इंडॉक्ट्रिनेशन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में हुआ था, 1930 के दशक में- नाथूराम गोडसे. नाथूराम गोडसे ने अपनी फांसी से पहले, जो आख़िरी चीज़ की थी वो थी आरएसएस की प्रार्थना गाना. तो आप समझ गए कि उनका रुझान क्या था."
नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, "हमको और कुछ समझने की ज़रूरत नहीं है. उस जगह से... जहां इन चीज़ों को याद किया गया था, जब हिंदुस्तान में ये परंपरा शुरू की गई थी... वहां से लेकर अब, जब लाल किले से प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस का भाषण देते हैं, वहाँ से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचार होता है, उनकी वाहवाही होती है, तो ये दुख और गुस्से की बात है क्योंकि ये हमारे राष्ट्र की परिकल्पना को नकार देने जैसा है."
नीलांजन मुखोपाध्याय आज़ादी से पहले आरएसएस की भूमिका पर भी सवाल उठाते हैं.
वो कहते हैं, "द्वितीय विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान आरएसएस ने अंग्रेजों का समर्थन किया. क्या यही तरीका था जिससे आप वास्तव में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को मज़बूत कर रहे थे? भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में, आज़ादी की लड़ाई में आरएसएस की क्या भूमिका थी?"
"जो तीन सबसे महत्वपूर्ण मोड़ थे जिन्होंने ब्रितानी साम्राज्य को हिलाकर रख दिया—पहला, असहयोग आंदोलन, दूसरा, दांडी मार्च और इसके साथ जुड़ा सविनय अवज्ञा आंदोलन और तीसरा भारत छोड़ो आंदोलन. अगर आप माइक्रोस्कोप से भी देखें तो आपको इन तीनों में से किसी में भी आरएसएस की उपस्थिति नहीं मिलेगी."
लाल क़िले की प्राचीर से पीएम मोदी के संघ की तारीफ़ को एक और बात से जोड़कर भी देखा जा रहा है.
आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कुछ ही दिन पहले कहा था कि नेताओं को 75 साल की उम्र का हो जाने पर अपने पदों को छोड़ देना चाहिए.
इस टिप्पणी से ये सवाल उठा कि क्या भागवत मोदी को इशारे से कुछ कह रहे हैं क्योंकि सितंबर के महीने में मोदी 75 साल के हो जाएंगे.
बीजेपी में कई सालों से देखा गया है कि 75 साल की उम्र हो जाने पर नेता चुनाव नहीं लड़ते या अपना पद छोड़ देते हैं.
लेकिन क्या मोदी ऐसा करेंगे? गृह मंत्री अमित शाह अतीत में कह चुके हैं कि मोदी अपना कार्यकाल पूरा करेंगे और उनके प्रधानमंत्री पद पर बने रहने को लेकर बीजेपी में कोई भ्रम की स्थिति नहीं है.
इसी मुद्दे को छेड़ते हुए कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने एक्स पर लिखा, "आज प्रधानमंत्री के भाषण का सबसे चिंताजनक पहलू लाल क़िले की प्राचीर से आरएसएस का नाम लेना था - जो एक संवैधानिक, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की भावना का खुला उल्लंघन है. यह अगले महीने उनके 75वें जन्मदिन से पहले संगठन को खुश करने की एक हताश कोशिश के अलावा और कुछ नहीं है.
जयराम रमेश ने लिखा, "4 जून 2024 की घटनाओं के बाद से निर्णायक रूप से कमज़ोर पड़ चुके प्रधानमंत्री अब पूरी तरह मोहन भागवत की कृपा पर निर्भर हैं, ताकि सितंबर के बाद उनका कार्यकाल का विस्तार हो सके. स्वतंत्रता दिवस जैसे राष्ट्रीय अवसर का व्यक्तिगत और संगठनात्मक लाभ के लिए राजनीतिकरण हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए बेहद हानिकारक है."
वहीं राधिका रामशेषन कहती हैं, "मोहन भागवत अगले महीने 75 साल के हो जाएंगे और कुछ ही दिन बाद मोदी भी 75 साल के हो जाएंगे. अगर मोदी जी ने ये रूल सबके ऊपर लागू किया है तो जायज़ सवाल है कि अपने ऊपर क्यों नहीं लागू कर सकते हैं."
वो कहती हैं, "ये भी देखना होगा कि मोहन भागवत अपने पद पर बरकरार रहते हैं या किसी और को सरसंघचालक बनाएंगे. इस मामले में मुझे लगता है कि कुछ समझौता होगा इन दोनों के बीच में और मोदी शायद अपने पद पर टिके रहेंगे."
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