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बिहार में स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न: बाढ़ में बहे काग़ज़, बीएलओ पर दबाव और नाम कटने का डर

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SHAHNAWAZ AHMED/BBC कोसी तटबंध के अंदर रहने वाली सनतलिया देवी पर अपने पांच बेटों और बहुओं का नाम वोटर लिस्ट में जुड़वाने की जिम्मेदारी है

बिहार में वोटर लिस्ट के लिए स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न (एसआईआर) अभियान चल रहा है.

94,163 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले इस राज्य में इस अभियान को लेकर राजनीतिक गलियारों में काफ़ी हलचल है. पूरे बिहार में मतदाताओं के बीच इसे लेकर अफ़रातफ़री भी देखी जा रही है.

राज्य के अलग-अलग इलाकों में लोग अपने डॉक्यूमेंट्स के साथ साइबर कैफ़े, फ़ोटोकॉपी की दुकानों और बीएलओ या आंगनबाड़ी सेविका के पास भीड़ लगाए नजर आते हैं.

ऐसा लगता है कि हर योग्य मतदाता, ख़ासकर ग्रामीण इलाक़ों में, यह सुनिश्चित करना चाहता है कि उसका नाम वोटर लिस्ट में दर्ज हो.

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बिहार सरकार की वेबसाइट के मुताबिक़, राज्य का 92,257 वर्ग किलोमीटर हिस्सा ग्रामीण क्षेत्र में आता है. वहीं जातीय सर्वे के अनुसार, राज्य के कुल 2 करोड़ 76 लाख परिवारों में से 94 लाख 42 हज़ार परिवारों की मासिक आय 6,000 रुपये से भी कम है. यानी राज्य की बड़ी आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है.

आर्थिक रूप से कमज़ोर होने की वजह से इस आबादी के लिए चुनाव आयोग की ओर से मांगे गए 11 दस्तावेज़ जुटाना भी एक मुश्किल काम है.

इन्हीं आंकड़ों के आईने में बीबीसी हिंदी ने चुनाव आयोग के चलाए जा रहे एसआईआर को लेकर हाशिए पर खड़ी आबादी की बेचैनी और उनकी मुश्किलों को समझने की कोशिश की है.

इसके लिए बीबीसी हिंदी की टीम पटना शहर की सबसे बड़ी स्लम बस्तियों में से एक कमला नेहरू नगर, वैशाली में राघोपुर, अररिया के इस्लाम नगर, पूर्णिया में मखाना मजदूरों का मोहल्ला खुश्कीबाग, सुपौल में कोसी तटबंध के बीच बसे गांवों और 2024 की बाढ़ से सबसे ज़्यादा प्रभावित दरभंगा के भुभौल तक गई.

यह रिपोर्ट इन्हीं जगहों पर मतदाताओं से बातचीत के आधार पर तैयार की गई है.

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कोसी तटबंध के गांव, सुपौल: फ़ोटोकॉपी के लिए जद्दोजहद

सनतलिया देवी गुस्से में हैं. वह अपनी मिट्टी के घर में बैठी हैं. कोसी तटबंध के भीतर सुपौल ज़िले की घोघररिया पंचायत की रहने वाली सनतलिया के पांच बेटे रोपनी (धान लगाने) के लिए पंजाब चले गए हैं. ऐसे में वोटर लिस्ट में उनका नाम जुड़वाने की ज़िम्मेदारी भी सनतलिया देवी पर ही है.

सनतलिया देवी बार-बार एक बक्से में रखे कागज़ निकालती हैं और बीएलओ तक ले जाकर कहती हैं, "सरकार पब्लिक को नचा रही है."

वह बीबीसी हिंदी से बातचीत में बताती हैं, ''पांच बेटों और तीन बेटियों का आधार कार्ड है. लेकिन दो बहुओं के पास कोई प्रूफ़ नहीं है. उनके पास न आधार कार्ड है, न पहचान पत्र, न जन्म की तारीख. तो वो वोट कैसे डालेंगी? वो तो सारे लाभ से वंचित रह जाएंगी. एक बहू अपने मायके से दस्तावेज़ लाने गई है. मिल गया तो ठीक, नहीं तो उसे कोई लाभ नहीं मिलेगा."

'बिहार का शोक' कही जाने वाली कोसी नदी के तटबंध के भीतर बसे सनतलिया और उनके जैसे हज़ारों वोटरों की परेशानी सिर्फ़ दस्तावेज़ जुटाने तक सीमित नहीं है.

image BBC

साल-दर-साल बाढ़ झेल रहे इस इलाके में सड़क, बिजली, पक्के मकान, स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र जैसा कुछ भी नहीं है.

यहां सिर्फ़ फूस की झोपड़ियां हैं और कुछ सोलर प्लेटें, जिनकी बैटरी भी पुरानी हो चुकी है.

यहां रहने वाले पहले कोसी नदी और फिर उसकी कई छोटी धाराएं पार करके ही सुरक्षा बांध तक पहुंचते हैं, जहां साइबर कैफ़े या फ़ोटोकॉपी की सुविधा वाली गिनी-चुनी दुकानें हैं.

सनतलिया देवी कहती हैं, "सात बार दाना (फसल) बेच कर नदी पार कर आधार कार्ड, पहचान पत्र की फ़ोटोकॉपी दिए हैं. लेकिन हमको वैसे भी कोई फायदा नहीं मिलता है."

यहीं रहने वाली निर्मला देवी कहती हैं, "कोसी बेल्ट में सभी कागज़ बह जाते हैं. सरकार को ये नहीं समझ आता है? आठ लड़के हैं, सब पंजाब गए हैं. सरकार जो प्रूफ़ मांग रही है, वो सब हम कहां से देंगे?"

वार्ड सदस्य प्रतिनिधि संतोष मुखिया भी कहते हैं, "तटबंध के भीतर रहने वालों के लिए अलग रणनीति होनी चाहिए क्योंकि यहां लोगों के कागज़ बह चुके हैं."

कई फॉर्मों पर एक ही मोबाइल नंबर image SHAHNAWAZ AHMED/BBC कोसी इलाके में बीएलओ इसी तरह मतदाताओं तक पहुंच रहे हैं

कोसी तटबंध के भीतर बसे मतदाताओं के साथ-साथ बूथ लेवल ऑफ़िसर (बीएलओ) भी परेशान हैं.

यहां की ज़िम्मेदारी संभाल रहे सहायक बीएलओ अंजारूल हक़ बताते हैं, "हम रोजाना 16 किलोमीटर पैदल चलते हैं. पहले कोसी नदी नाव से पार करते हैं, फिर दूसरी छोटी धाराएं भी पैदल पार करनी पड़ती हैं. यहां लोगों के पास कोई कागज़ नहीं है. चुनाव आयोग ने कहा है कि जो कुछ भी मिल रहा है उसे भरकर ऑनलाइन कर दीजिए. सत्यापन के समय ज़रूरत पड़ी तो इन लोगों से दोबारा संपर्क किया जाएगा."

हालांकि यहां एक और बड़ी दिक्कत है. लोगों के पास फोन नंबर भी नहीं हैं. कोसी के इस इलाके में बीबीसी हिंदी ने देखा कि कई लोगों के फॉर्म पर एक ही मोबाइल नंबर दर्ज किया गया है.

बिहार की टेलीडेंसिटी (किसी क्षेत्र में 100 व्यक्तियों पर उपलब्ध टेलीफ़ोन कनेक्शनों की संख्या) सिर्फ़ 57.23 फ़ीसदी है, जबकि राष्ट्रीय औसत 85.04 फ़ीसदी है. यानी जिस व्यक्ति का नंबर इन फ़ॉर्मों पर लिखा गया है, अगर वह पलायन कर गया तो भविष्य में संपर्क करना और मुश्किल होगा.

बिहार का 73 फ़ीसदी हिस्सा बाढ़ प्रभावित है. हर साल आने वाली बाढ़ में लोगों की गृहस्थी डूब जाती है. ऐसे में अपने दस्तावेज़ संभालकर रखना बड़ी चुनौती है.

दरभंगा का भुभौल गांव: 'बाढ़ में सब कागज़ बह गए' image SHAHNAWAZ AHMED/BBC सितंबर 2024 की बाढ़ के बाद भुभौल गांव में जगह-जगह ऐसे तालाबनुमा जलस्रोत बन गए हैं. लोगों के घर और उनके दस्तावेज़ इसी पानी में समा गए हैं

सुपौल से करीब 100 किलोमीटर दूर दरभंगा के भुभौल गांव में पिछले साल तटबंध टूट गया था.

इसके बाद आई बाढ़ के निशान अब भी गांव में दिखते हैं.

यहां ठहरे हुए पानी में लोगों के पक्के घर और सरकारी स्कूल की टूटी इमारतें नजर आती हैं.

कुछ लोगों के घर तो पूरी तरह पानी में डूब गए. लोग इस पानी में अपने घर ढूंढने की नाकाम कोशिश करते हैं.

image BBC

बाढ़ से प्रभावित कौसर अली कहते हैं, "हमारे घर इस पानी के अंदर हैं. उस रात (सितंबर 2024) जब बाढ़ आई तो हम भागे. कुछ लोग आधार कार्ड लेकर भागे तो कुछ के पास आधार बचाने का भी मौका नहीं था. मेरा आधार मोबाइल में था, तो हम फिर से निकाल लिए."

लेकिन गुड्डू महतो और सोनी देवी किसी तरह अपने बच्चे की जान बचा पाए. उनका सामान और दस्तावेज़ सब बह गया. पहले ये दंपत्ति फूस की झोपड़ी में रहते थे, अब पुरानी साड़ी तान कर जैसे-तैसे रहने लायक जगह बना रखी है.

उनके घर के पास कुछ ईंटें रखी हैं, जो सितंबर 2024 की बाढ़ से पहले पक्का मकान बनाने के लिए खरीदी थीं. सूढ़ी (वैश्य) समुदाय से आने वाले गुड्डू कहते हैं, "सरकार कागज़ मांग रही है. बांध टूटा तो कागज़ पानी में समा गया. आधार कार्ड, पासबुक, जमीन का कागज़, सब चला गया. सरकार को कागज़ हम कहां से दें. सरकार को बोलिए कि लिखकर दे दे कि हम भारत के नागरिक नहीं हैं."

पूर्णिया, खुश्कीबाग मोहल्ला: 'घर से दूर हैं तो कागज़ कैसे दें?' image SHAHNAWAZ AHMED/BBC पूर्णिया के खुश्कीबाग में दरभंगा से आए मखाना मजदूरों ने अपनी 6 माह की अस्थायी कॉलोनी बसा ली है. ये लोग भी वोटर लिस्ट को लेकर आशंकित हैं

12 जुलाई को जब बीबीसी हिंदी की टीम यहां पहुंची, तब तक इस गांव के महादलित टोले में बीएलओ नहीं पहुंचे थे. टोले के सामाजिक कार्यकर्ता उमेश सदा कहते हैं, "हम लोग तो सरकार की ज़मीन पर ही बसे हैं. सरकार पर्चा नहीं दे रही है. कागज़ सब धंस गया. मेरे पास आधार कार्ड है, लेकिन मेरी बीबी के पास नहीं है."

वोटर लिस्ट में ख़ुद को बनाए रखने की टेंशन से पूर्णिया का खुश्कीबाग मोहल्ला भी गुज़र रहा है.

दरअसल, जुलाई की शुरुआत में ही दरभंगा से सैकड़ों की संख्या में मखाना मज़दूर (फोड़ी) यहां आकर बस गए हैं. ये करीब छह महीने तक यहीं रहेंगे और मखाना के फल (गुर्री) से मखाना निकालने का काम करेंगे.

मखाना मज़दूर साल में छह महीने अपने गांव-घर छोड़कर पूरे परिवार के साथ मज़दूरी करने आते हैं और यहां अपनी एक कॉलोनी बसा लेते हैं.

यहां रहने वाले मज़दूर लगातार अपने गांव के पंचायत प्रतिनिधियों से संपर्क में हैं.

ऐसे ही एक मज़दूर सुरेश सहनी ने बीबीसी हिंदी को बताया, "सरकार कागज़ मांग रही है, लेकिन हम तो वहां हैं ही नहीं. वोटर बनना भी जरूरी है क्योंकि तभी चावल राशन मिलेगा. वोटर से बाहर हो जाएंगे तो बिहार के आदमी कैसे कहलाएंगे?"

जब उनसे पूछा गया कि वोट देने कैसे जाएंगे, तो वहां मौजूद एक महिला बोली, "मुखिया जी बस भेजते हैं. उसी में हम लोग वोट देने जाते हैं."

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क्या आधार कार्ड को मान लेगा आयोग? image SHAHNAWAZ AHMED/BBC अररिया में एक साइबर कैफे, जहां लोग अपने दस्तावेज़ निकाल रहे हैं.

इस बीच चुनाव आयोग ने एसआईआर के लिए जिन 11 दस्तावेज़ों की सूची जारी की है, वो जमीन पर आकर लगभग बेअसर साबित हो रही है. बीएलओ हर जगह लोगों से सिर्फ आधार कार्ड ही मांग रहे हैं.

जबकि आधार, पैन, वोटर आईडी, राशन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस को आयोग ने उन 11 दस्तावेज़ों की सूची से बाहर रखा है.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को आधार कार्ड को शामिल करने की सलाह दी है, लेकिन आयोग ने अभी तक इस पर कोई फ़ैसला नहीं लिया है. ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि क्या आयोग आधार कार्ड को दस्तावेज़ के तौर पर मानेगा?

आयोग ने मतदाताओं के नाम पर जो अपील जारी की है, उसमें कहा गया है, "अगर आप आवश्यक दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं करा पाते हैं तो निर्वाचक निबंधन पदाधिकारी (ईआरओ) स्थानीय जांच या अन्य दस्तावेज़ के साक्ष्य के आधार पर निर्णय लेगा."

यानी अगर आपके पास दस्तावेज़ नहीं हैं, तब भी फॉर्म भरकर जमा किया जा सकता है. फिलहाल ज़्यादातर मतदाता गणना फॉर्म के साथ आधार कार्ड की कॉपी लगा रहे हैं. कई जगह प्रपत्र सिर्फ़ भरकर भी जमा किए जा रहे हैं. जो लोग बाहर हैं, उनके फॉर्म उनके घर के नज़दीकी रिश्तेदारों से हस्ताक्षर या अंगूठा लगवाकर भरवाए जा रहे हैं.

इन हालात में यह संभावना है कि आयोग भविष्य में आधार कार्ड के आधार पर भी फ़ैसला ले सकता है.

हालांकि सामाजिक कार्यकर्ता इसे लेकर निश्चिंत नहीं हैं. कोसी इलाके में काम कर रहे एक सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र यादव कहते हैं, "अभी तो अपनी जान छुड़ाने के लिए आयोग आधार कार्ड ले रहा है. लेकिन भविष्य में यही आधार देने वालों को वोटर लिस्ट से बाहर भी कर सकता है. आयोग की कोई गारंटी नहीं दिखती."

मामला सिर्फ़ दस्तावेज़ों तक ही सीमित नहीं है. आयोग के कई अन्य निर्देशों का भी पालन नहीं हो रहा है. जैसे आयोग के मुताबिक, हर प्रपत्र भरने पर एक रसीद मिलनी चाहिए, लेकिन बीबीसी हिंदी ने कहीं भी मतदाताओं को रसीद मिलते नहीं देखा.

अररिया की वोटर नादमां खातून कहती हैं, "हमें कोई रसीद नहीं मिली है. सरकार बेकार का कानून निकालकर हम सबको कागज़ के पीछे दौड़ाए हुए है."

इस्लाम नगर, अररिया: 'वोटर लिस्ट से नाम कटने का डर' image SHAHNAWAZ AHMED/BBC अररिया के इस्लाम नगर में अपना फॉर्म ढूंढते मतदाता.

इन सबके बीच वोटर लिस्ट से नाम कट जाने का डर सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी में दिख रहा है.

अररिया शहर के इस्लाम नगर के वार्ड नंबर 27 में मुस्लिम समुदाय के बीच यह चिंता साफ झलकती है. इस वार्ड में करीब 2,700 वोटर हैं, जो सभी मुस्लिम समुदाय से आते हैं. इनमें से ज़्यादातर लोग मज़दूरी करते हैं.

वार्ड में घुसते ही दाईं ओर एक साइबर कैफे पर लोगों की भीड़ नजर आती है. सभी लोग साल 2003 की लिस्ट में अपने या अपने माता-पिता का नाम ढूंढने में लगे हैं.

कैफे के मालिक नवाज़ अंसारी बताते हैं, "जिनके माता-पिता या ख़ुद के नाम 2003 की लिस्ट में मिल जा रहे हैं, वो उसका फ़ोटोकॉपी दे रहे हैं. मुस्लिम आबादी बहुत ज़्यादा परेशान है. लोग अपना काम-धंधा छोड़कर कागज़ बनवाने में लगे हैं. हम भी सुबह 8 बजे से दुकान खोलकर देर रात तक बैठे रहते हैं."

वार्ड नंबर 27 के वार्ड सदस्य इबरार सिद्दीकी बीबीसी हिंदी से कहते हैं, "लोगों के मन में शंका है कि वो छूट जाएंगे. अगर आयोग बोगस वोटर को चिह्नित करना चाहता है तो अच्छी बात है. लेकिन अगर कोई दूसरी वजह एसआईआर करने की है तो फिर क्या कह सकते हैं? वोट देना हमारा अधिकार है, ये किसी कीमत पर नहीं छिनना चाहिए."

इस वार्ड में कागज़ इकठ्ठा कर रही आंगनबाड़ी सेविका रहमती खातून भी कहती हैं, "हम लोगों पर प्रेशर दिया जा रहा है कि 500 फॉर्म जमा करो... 400 फॉर्म जमा करो. जब वोटर के पास कागज़ ही नहीं है तो क्या जमा करें? लोगों के पास आधार और पहचान पत्र है लेकिन सरकार कहती है कि वो नहीं चलेगा. ऐसे तो बहुत सारे लोग छूट जाएंगे."

अररिया के पड़ोसी ज़िले किशनगंज की 68 फ़ीसदी आबादी मुस्लिम है. राज्य में सबसे ज़्यादा आवासीय प्रमाण पत्र के लिए आवेदन यहीं से आए हैं.

उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी ने एक बयान में कहा, "1 जुलाई से 7 जुलाई के बीच यहां दो लाख आवास प्रमाण पत्र के लिए आवेदन आ गए हैं, क्योंकि चुनाव आयोग के दिए 11 दस्तावेज़ों में यही सबसे कम वक़्त में निकल जाएगा. ये हमारे लिए चिंता का विषय है कि कहीं ये बांग्लादेशी तो नहीं."

वहीं सीमांचल में सक्रिय एआईएमआईएम के राष्ट्रीय प्रवक्ता आदिल हसन बीबीसी हिंदी से कहते हैं, "सीमांचल वाले क्या करें? ये पता चल रहा है कि सीमांचल में आधार कार्ड नहीं लिया जा रहा. ऐसे में वो कोई तो दस्तावेज़ लाएंगे. और सीमांचल में 40 फ़ीसदी मुसलमान हैं, बाकी 60 फ़ीसदी हिंदू और अन्य. इसलिए सिर्फ़ मुसलमान ही आवासीय प्रमाण पत्र नहीं बनवा रहे बल्कि सभी बनवा रहे हैं."

बिहार के सीमांचल में किशनगंज, पूर्णिया, कटिहार और अररिया ज़िले आते हैं.

राघोपुर, वैशाली: 'यही है हमारे पास, यही जमा कर लो' image SHAHNAWAZ AHMED/BBC वैशाली के राघोपुर में बीएलओ के साथ आंगनबाड़ी सेविकाएं भी एसआईआर की जिम्मेदारी निभा रही हैं

राजधानी से दूर दराज़ के इलाकों में ही नहीं बल्कि राजधानी पटना और आसपास के इलाके में भी लोगों के पास दस्तावेज़ नहीं है

वैशाली का राघोपुर, नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव का विधानसभा क्षेत्र है. गंगा नदी किनारे बसे इस इलाके में भी मतदाताओं के पास आधार, पैन और राशन कार्ड ही हैं.

गाना देवी के घर से कुछ दूरी पर बीएलओ रंजीत कुमार दास एक चौकी पर बैठे हैं.

गाना अपने बक्से से आधार, पैन और कोविड वैक्सीन का सर्टिफिकेट निकालकर लाती हैं और कहती हैं, "यही है हमारे पास, यही जमा कर लो."

बीएलओ रंजीत कुमार दास बीबीसी हिंदी से कहते हैं, "ज्यादातर लोगों के पास आधार कार्ड ही है और वही जमा हो रहा है."

इसी तरह रजपतिया देवी के पास भी आधार, पैन कार्ड और बैंक का पासबुक है. वह बताती हैं, "बीएलओ साहब ने आधार कार्ड मांगा तो वही जमा कर दिया है."

कमला नेहरू नगर, पटना

उधर पटना की कमला नेहरू नगर बस्ती में देवी स्थान अंधेरे में डूबा हुआ है.

बीएलओ कांति देवी जमीन पर दरी बिछाकर बैठी हैं और अंधेरे में कागज़ देख रही हैं.

वो कहती हैं, "मेरे लिए तो यहां पहुंचना ही मुश्किल है. बस्ती की छोटी और घुमावदार गलियां समझ ही नहीं आतीं. फिर लोग पढ़े-लिखे नहीं हैं. उनके पास आधार कार्ड है. ऊपर से हमें निर्देश मिला है कि आधार कार्ड ले लें."

इसी वजह से अब बस्ती के लोग कुछ हद तक निश्चिंत हैं. बस्ती की रूपशिला देवी कहती हैं, "हम लोग कहां से जन्मपत्री लाते जो सरकार मांगती है?"

अब तक 35 लाख वोटर बाहर image SHAHNAWAZ AHMED/BBC चुनाव आयोग का कहना है कि बिहार में 90.84 फ़ीसदी मतदाताओं से संपर्क किया जा चुका है

चुनाव आयोग के मुताबिक, 15 जुलाई तक आयोग ने 86.32 फ़ीसदी मतदाताओं का गणना प्रपत्र एकत्र कर लिया है. वहीं अब तक आयोग 90.84 फ़ीसदी मतदाताओं से संपर्क भी कर चुका है.

दरअसल, 1.59 फ़ीसदी मतदाता मृत पाए गए, 2.2 फ़ीसदी स्थायी रूप से बिहार से बाहर चले गए और 0.73 फ़ीसदी ऐसे हैं जिनके नाम एक से ज़्यादा जगह दर्ज हैं. यानी कुल 4.52 फ़ीसदी मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट से हटेंगे, जो करीब 35 लाख हैं.

जनवरी 2025 में आयोग ने बिहार में वोटरों की संख्या 7 करोड़ 90 लाख बताई थी. चुनाव आयोग गणना प्रपत्र 25 जुलाई तक लेगा.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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